प्रथम स्थान
महाराष्ट्र की कलम सुगंध
28 सितंबर 2020
विषय- मानव और प्रकृृति
विधा-कविता
***********
ख़बरों से अख़बार भरा है
लो ज़मीर फिर आज मरा है
फिर कलियाँ मुरझाईं असमय
फिर बाड़ी ने खेत चरा है
नफ़रत का दावानल दहका
ढाई आखर मान घटा है
फिर टिड्डी दल है मंडराया
फिर कोई खलिहान जला है
फिर चुनाव का मौसम आया
फिर उनका ईमान मरा है
फिर मस्ती में गरजे बादल
बस्ती में कुहराम मचा है
फिर मरकज़ में लापरवाही
कोरोना शैतान मिला है
फिर चैनल में तू-तू,मैं-मैं
फिर विवेक बीमार मिला है
फिर से धनिया सदमे में है
फिर से होरी डरा-डरा है
फिर सीमा पर इक सैनिक ने
माँ-चरणों में शीश धरा है
नहीं मरा आँखों का पानी
ज़ख्म हमारा हरा-भरा है
हर घातक विपदा से हरदम
अपना हिन्दुस्तान लड़ा है
बाद मिरे जाने के कहना
जज़्बातों से भरा भरा है
प्रतिभा पाण्डेय
प्रयागराज उत्तर प्रदेश
🌷
प्रथम स्थान🌷
नमन मंच 🙏
महाराष्ट्र क़लम के सुगंध
28-09-20 सोमवार
विषय ...मानव और प्रकृति
(मेरी कविता का आशय जब वृक्ष कटता है तब मानव को उसकी पुकार है़
हे निर्दयी मानस !
ये तूने क्या करके दिखलाया ?
मेरे ही तन से मेरे अंगों को काट गिराया
मुझे काटने को तुमको मेरी ही जाति मिली थी।
कभी कुल्हाड़ी को देखा क्या पीछे वो ही लगी थी ।
पत्थर मारो तो फल देता ,
क्या मेरा अपराध यही ?
थके हुए को राहत देता ,
क्या मेरा विश्वास यही ?
अरे ओ मानव !
कभी सोचता में अन्नों का भंडार बना,
मेरे बिन क्या तू जी लेगा भूखा ये संसार रहा ।
अपना वंश बढ़ाते रहते मेरे वंश का नाश किया,
पर तू नहीं कभी समझेगा अपने हाथों ही विनाश किया।
मेरे बिन वर्षा नहीं होगी,
फसलें किससे सींचेगा ?
तेरी आँखों में ना पानी ,
बूँद बूँद को तरसेगा ।
मेरे बिन लकड़ी कागज तू मधुर कहां से लाएगा ?
खून के आँसू मुझे रुलाया क्या तू पाप न पाएगा ?
सावन सूने धरती बंजर हरियाली को कूच दिया ,
अरे निर्दयी ! तरसेगा, तूने फुलवारी को मैंट दिया ।
धरती माँ के रक्त अश्रु,
क्या तुझको नजर नहीं आते ?
छाती फटी पड़ी है उसकी ,
क्या रिश्ते और क्या नाते ?
अरे नासमझ !
धरती माँ हा! हा! करके सिसकी लेती,
जब तू वृक्षों को उखाडता अपना नाश समझ लेती ।
चेत अभी तू .....
पृथ्वी माँ का आदर करना सीख जरा ,
उसका मत श्रंगार बिगाडे उसमें कर तू जरा हया ।
स्वरचित सुधा चतुर्वेदी ' मधुर '
भायन्दर मुंबई
🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼
द्वितीय स्थान
महाराष्ट्र कलम की सुगंध
जय-जय श्री राम राम जी
28/9/2020/सोमवार
*मानव और प्रकृति*
काव्य
आज अनवरत रो रही मां वसुंधरा।
सोच रही क्यों कर मैंने मौन धरा।
सब मेरी छाती पर मूंग दलते हैं,
फिर क्यों लगे राज काज मुझको गहरा।
प्रकृति ने सबको ताल तलैयां सरिता दी।
सभी सुन्दर बाग बगीचे बगियां दी।
फैला दी हरियाली सुखद चहुंओर,
इस जग को सुख मनोरंजन खुशियां दी।
फिर भी लूट रहा मानव निशदिन मुझको।
यहां खोद रहा पर्वत नदिया सबको।
मैं ही धरनी,धरती, वसुधा,वसुंधरा,
तुम्ही सब नोंच रहे नित मेरे तनको।
इस प्रकृति से करो छेड़छाड़ जितनी,
तुम सारे उतने ही कष्ट उठाओगे।
तुम देख रहे मानव देखोगे जब,
इस रोग से तड़प-तड़प मर जाओगे।
मेरा मानव तुझसे गठबंधन है।
मेरी माटी रज चंदन है।
आदर कर तू सदा मेरा,
वरना अब क्रंदन ही क्रंदन है।
स्वरचित,
इंजी शंम्भू सिंह रघुवंशी अजेय
गुना म प्र
🌷
द्वितीय स्थान🌷
नमन मंच
दिनांक - २८/०९/२०२०
दिन - सोमवार
विषय - मानव और प्रकृति
विधा - कविता
----------------------------------------------
जल रही है सारी धरती हो रहा सब-कुछ धुआं।
खून के आंसू बहा कर रो रहा है आसमां।।
धूप में जलकर लहू जो बादलों में उड़ गया।
बन के फिर बारिश वही धरती पे अंबर से गिरा।।
बह रहा है खून ही नदियों में पानी की जगह।
आदमी ने काट डाले पेड़ सारे बेवजह।।
आदमी अपनी लगाई आग से बचता फिरे।
जल रहा फिर भी चिता में आदमी अब क्या करे।।
मूक और बेबस प्रकृति है बंधी जंजीर से।
कोसती है भाग्य अपने लड़ रही तकदीर से।।
पांव पर अपने कुल्हाड़ी हमने ख़ुद मारी यहां।
अपने हाथों कब्र की हमने की तैयारी यहां।।
बस बचे चट्टान पत्थर मिट गई हरियालियां।
आदमी ने है निभाई ख़ुद से ही अय्यारियां।।
काट कर पेड़ों को धरती सूनी कर दी आप से।
कौन अब रक्षा करेगा प्राकृतिक संताप से।।
जो है बोया आदमी ने बस वही तो पाएगा।
प्रकृति के न्याय से बच कर कहां तक जाएगा।।
रिपुदमन झा 'पिनाकी'
धनबाद (झारखण्ड)
स्वरचित
🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼
तृतीय स्थान
नमन मंच
महाराष्ट्र कलम की सुगंध
दिनांक २८/०९/२०
मेरी नई कविता
"मानव और प्रकृति"
मृदु छाया तरु की जो देती
वसुधा की है प्यारी बेटी
प्रकृति का कुछ मान करो तुम
मानव मत अपमान करो तुम।
कस्तूरी की गंध जो आती
मलय हवा सौरभ जो लाती
इत्र तुम्हारा कहां टिकेगा?
इतना तो बस ध्यान धरो तुम।
कोयल की मीठी सी बोली
कानों में मिसरी सी घोली
शोर मचाते ध्वनि यंत्रों से
इतना मत धनवान बनो तुम।
दिनकर की रश्मि को पाकर
देखो किसलय मुड़ जाते हैं
बड़े उड़ाए द्रोण है तुमने
बिन विद्युत कुछ काम करो तुम।
मनु के सुत दानव बन बैठे
ज्ञान बढ़ा अज्ञान हुआ है
इसी प्रकृति से है जीवन
जान के मत अनजान बनो तुम ।
मधुकर वनमाली
मुजफ्फरपुर बिहार
स्वरचित एवं मौलिक
🌷
तृतीय स्थान 🌷
1️⃣
महाराष्ट्र कलम की सुगंध
28/9/2020
विषय मनुष्य व प्रकृति ।
प्रकृति व मनुष्य का अटूट बंधन
सदियों से चलतें आया है ।
मानव के जीवन में यारों
हर पल साथ निभाया है।।
जब इस श्रृष्टि का जन्म हुआ
तू प्रकृति के गोद में आया था।
मानव तू अपना आदि सदा ही
प्रकृति के संग ही बिताता था।।
जब तू प्रकृति को पूजता था
पेड़ पौधें सब लहलहाते थे।
दोनों की बोली जाहिर थी
दोनों में रक्त का बंधन था।।
जैसें हमदुख दर्द समझते रहे
वैसे ही वे उत्तर देते रहे ।
आनंद खुशी दुख पतझड़ का
अनुभूति वे करतें कराते रहें ।।
आयुर्वेद प्रगतिविज्ञान सदा ही
वृक्षों नदियों को पूजनीय कहा।
औषधियों के उपयोग हेतु ही
शाश्वत श्रद्धा का भाव रक्खा।।
जैसें जैसें मानव बदला
सभ्यताएं नयी नयी आई।
प्रकृति के संसाधनों का दोहन
बिकराल रूप में वह लाई।।
पहलें हम प्रकृति की गोदी में
खुशहाल आनंदित रहते थे।
मोर पपीहा कोयल के संग
गीत मधुर धुन गढते थे।।
उजड़ गये सब बाग बगीचे
ऊँची ऊँची अट्टालिकाएं आई।
जंगल-जंगल सब काट डाले
प्रकृति संतुलन सब बिगाड़ डाले।
भूकंप बाढ़ सूखे का प्रकोप
पूरे ब्रह्माण्ड को बिगाड डाले।।
हें मानव आधुनिकता की दौड़ में
इंसानियत को तू भुला बैठा।
इसीलिए मनुष्य प्रकृति की यहीं
खाईं चौड़ी से चौडी कर डाली ।।।
डा के एन सिंह कल्याण
मुंबई-महाराष्ट्र
🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼
सराहनीय प्रस्तुति
1️⃣
नमनमंच संचालक।
महाराष्ट्र कलम की सुगंध।
विषय-मानव और प्रकृति।
विधा-कविता।
स्वरचित।
बसंत आ गया और
सारे जहां पर छा गया।
वसुंधरा को सतरंगी
सुंदर चुनरी पहना गया।।
श्वेत-जामुनी रंग सुनहरे
लाल-गुलाबी,नीले-पीले
हरियाली इसके कण-कण में
महके सुमन खिले खिले।।
सबको धारण करती है
सबका पोषण करती है।
सितम सह रही सबके हंसकर
फिर भी शिकायत ना करती।।
हे इंसा! तुम क्यों हो
इतने संवेदना विहीन।
जिस डाल पर बैठे सुरक्षित
उसको काट रहे मतिहीन।।
भौतिक सुख-सुविधा में खोए
फैला रहे कचरा प्रदूषण दीन।
मां जब रूठेगी कोप करेगी
समझोगे शायद उस दिन।।
निकल चुकेगा समय हाथ से
तुम पर फिर तुम पछताओगे।
देर हो चुकी होगी तब तक
कुछ ना कर तुम करपाओगे।
अपने ही पैर पर मार कुल्हाड़ी
पीढ़ियों तक संभल ना पाओगे।।
****
प्रीति शर्मा"पूर्णिमा"
28/09/2020
2️⃣
महाराष्ट्र कलम की सुगंध,
संचालिका आदरणीय अनुराधा नरेन्द्र चौहान जी
प्रकृति और मानव,
-------------------------/
प्रकृति और मानव,
एक के बिना अधूरा,
माँ-बाप,
शिशु को जन्म देते,
परवरिश करते,
उसके कल्याण हेतु,
सारी व्यवस्था करते,
और,
बच्चों को ,
अपने पैरोंपर खड़ाकर देते,
उसी प्रकार,
जग नियंता,श्रेष्ठ शिल्पी,
ये सारी प्रकृति,
सारी सृष्टि,
सारे चौरासी लाख जीवों के लिए,
श्रेष्ठ शिल्पी, जगनियंता ने बनाई,
परम ब्रम्हकी,
संचेतना, संवेदना से,
येसारी सृष्टि, प्रकृतिबनी,
ये प्रकृति,
परम ब्रम्ह की,
माया योग है,
सारे जीवों को,
अपने माया में बांध रखे है।।
लेकिन
मनु शतरुपा के संतान,
मानव,
परम पिता का,
श्रवण कुमार नही बना,
और
स्वार्थ मे अंधा होकर ,
अपनी जननी प्रकृति का दोहन,
हर पल कर रहाहै,
वनों की कटाई,
सारी प्रकृति निशुल्कदेती,
अपने मानव पुत्र को,।ः
श्रेष्ठ शिल्पी,
बनाई प्रकृति,
सारे जीवों को,
अपनी ममता लुटाती है,
देवेन्द्र नारायण दासबसना छ,ग,।।
स्वरचित मौलिक रचना।।
🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼
महाराष्ट्र कलम की सुगंध द्वारा आयोजित चित्र आधारित कविता लेखन में उत्कृष्ठ सृजन के लिए आपको ढेर सारी बधाई व शुभकामनाएं। महाराष्ट्र कलम की सुगंध परिवार आपके उज्ज्वल भविष्य की मंगल कामना करता है।
अनुराधा चौहान 'सुधी'
सचिव (महाराष्ट्र कलम की सुगंध)
चित्र गूगल से साभार